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वाराणसी की अर्थव्यवस्था
'वाराणसी' उद्योग और व्यापार का
प्रमुख केंद्र है। भारत में स्थित वाराणसी का पुराना शहर प्रारम्भिक काल से ही
अपने किमखाब और सिल्क के कपड़ों के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज भी यह उज्ज्वल परम्परा
यहाँ पर जीवित है और वाराणसी के कारीगर तरह-तरह के नक्शों और नमूनों में
आश्चर्यचकित कर देने वाले विभिन्न प्रकार के मनमोहक कपड़े तैयार करते हैं। वाराणसी
ज़िला आज भी भारत के प्रमुख सिल्क बुनने वाले केन्द्रों में से एक है और इसके पास
लगभग 29,000
हथकरघे
हैं,
जिनमें
से अधिकाँश शहर के 10
से 15 मील के अर्द्धव्यास में
फैले हुए हैं। 1958
में
1,25,20,000
रुपये
के विनियोजन पर,
इस
उद्योग से लगभग 85,000
लोगों
को रोज़गार मिला तथा अन्य 10,000
लोग
इसके सहायक व्यवसायों और व्यापार के कार्यों में लगे थे।
वाराणसी
कला,
हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी
केन्द्र है। यह शहर रेशम,
सोने
व चाँदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, काँच की चूड़ियों, हाथी दाँत और पीतल के काम
के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रमुख उद्योगों में रेल इंजन निर्माण इकाई शामिल है।
वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है।
वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी किमखाब तथा ज़री के वस्त्रों से
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता
ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार
में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी
मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा ज़री के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन
पर मनोहारी काम और संजरात (झांझ मझीरा) उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए
विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों
में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं।
वाणिज्य
और व्यापार का प्रमुख केंद्र
वाराणसी
नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह
नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग राजगृह को जाता था।[1] काशी से वेरंजा जाने के
लिए दो रास्ते थे-
सोरेय्य
होकर
प्रयाग
में गंगा पार करके।
दूसरा
मार्ग बनारस से वैशाली को चला जाता था।[2] वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के
साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से चंदन लाया था।[3]
व्यापार
समुद्री
व्यापार
वाराणसी
के व्यापारी समुद्री व्यापार भी करते थे। काशी से समुद्र यात्रा के लिए नावें
छूटती थीं।[4]
इस
नगर के धनी व्यापारियों को व्यापार के उद्देश्य से समुद्र पार जाने का उल्लेख है।[5] जातकों में भी व्यापार के
उद्देश्य से बाहर जाने का उल्लेख मिलता है। एक जातक में उल्लेख है कि बनारस के
व्यापारी दिशाकाक लेकर समुद्र यात्रा को गए थे।[6] एक अन्य व्यापारी मित्रविदंक जहाज़ लेकर
समुद्र यात्रा पर गया था,
जहाँ
उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा।[7]
महावग्ग[8] में काशिराज ब्रह्मदत्त को
विपुल धन का स्वामी,
भोग-विलास
की सामग्री से परिपूर्ण कहा गया है। इससे यह विदित होता है कि अन्य नगरों या
जनपदों की तुलना में काशी की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।
दीघनिकाय
में संख नामक राजा के राजत्व में सातरत्नों- चक्करतन, हस्तिरत्नं, मणिरत्नं, हत्थिरत्नं, गृहपतिरत्नं एवं परिणायक
रत्न- से युक्त वाराणसी नगरी को केतुमती नामक समृद्ध एवं बहुजना तथा आकिष्णनुमा
होने की भविष्यवाणी की गई है।[9] यह विवरण इसकी समृद्धि का सूचक है।
काष्ठ
व्यवसाय
जातकों
के अनुसार वाराणसी काष्ठ व्यवसाय का भी एक प्रमुख केंद्र था। इन नगर के पास एक
बड्ढकि ग्राम था,
जहाँ
बढ़ईयों की बस्ती थी। इस बस्ती में 5 सौ बढ़ई रहते थे।[10] वे जंगलों में जाकर
गृहनिर्माण में प्रयुक्त होने वाली लकड़ियों को काट लेते थे। ये बढ़ई एक, दो अथवा कई मंजिलों वाले
मकान बनाने में दक्ष थे।[11]
गजदंत-व्यवसाय
वाराणसी
में गजदंत-व्यवसाय का भी विस्तृत प्रचार था। जातकों में यहाँ एक दंतकार वीथि (गली)
का उल्लेख आया है,
यहाँ
हाथीदाँत की वस्तुयें बनती थी।[12] वाराणसी के व्यापारी विक्रय की अनेक वस्तुओं
के अतिरिक्त हाथी के दाँत के बने हुए सामान भी देश के अन्य भागों में पहुँचाते थे।
वर्तमान समय में हाथीदाँत भारत की सरकार द्वारा प्रतिबंधित है, अत: हाथीदाँत के आभूषणों
और इसके अन्य उत्पाद उपलब्ध नहीं हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ मिट्टी के बर्तन एवं
खिलौने आदि भी बनाए जाते थे, जिनका समर्थन पुरातात्विक उत्खनन से भी
प्राप्त प्रमाणों से निश्चित होता है।
कासिक
चंदन (काशी का चंदन)
इसके
अतिरिक्त ‘कासिक चंदन’ भी वाराणसी का एक प्रमुख
उद्योग था,
जातकों
में ‘कासिक चंदन’ का उल्लेख कई स्थलों पर
आया है।[13]
पंडर
जातक[14]
में
‘कासिक चन्दनन्च’ शब्द मिलता है। इन
उल्लेखों से यह विदित होता है कि बौद्ध काल में वाराणसी चंदन के उद्योग एवं व्यापार
के लिए सुविख्यात था।
बहुमूल्य
वस्त्रों के अतिरिक्त काशी जनपद चंदन के लिए भी प्रसिद्ध था। जातकों और
अंगुत्तरनिकाय[15]
में
‘कासि विलेपन’ और ‘कासि चंदन’ का उल्लेख मिलता है। काशी
में चंदन की लकड़ी का उद्योग मिलिंदपन्हों में भी मिलता है।[16]
इस
प्रकार यह निश्चित है कि बौद्ध साहित्य में वाराणसी को व्यापार और वाणिज्य के
क्षेत्र में समृद्धिप्राप्त थी, जिसका विवरण बौद्ध ग्रंथों में अनेकश: मिलता
है।
घोड़ों
का व्यापार
वाराणसी
में उत्तरापथ के घोड़ों का व्यापार होता था। यहाँ के बाज़ार में सुंदर एवम् अच्छे
सैंधव घोड़े उपलब्ध थे,
जिनकी
माँग अधिक रहती थी। अनेकश: घोड़े के व्यापारियों को उत्तरापथ (गांधार-तक्षशिला) से
घोड़े लेकर वाराणसी में बेचने आने का उल्लेख है। उत्तरापथ में पाँच सौ अश्वों को
लेकर व्यापारार्थ व्यापारियों का वाराणसी में आने का प्रमाण मिलता है।'[17]
वाराणसी
से व्यापार के लिए देश के अन्य भागों में वस्त्र, चंदन, हाथीदाँत के सामान, मिट्टी के बर्तन एवं
खिलौने तथा काष्ठ के बने हुए सामान भेजे जाते थे, जिनका उल्लेख जातकों में विस्तार से आया है।
बहुमूल्य
वस्त्रों के लिए विख्यात
बुद्ध
काल में वाराणसी नगरी सुंदर, बहुमूल्य वस्त्रों के लिए भी विख्यात थी, जिसका उल्लेख बौद्ध
ग्रंथों में अनेक स्थलों पर मिलता है। संयुक्त निकाय के वत्थिसुत्त में काशी का
बना कपड़ा अन्य समस्त जगहों से बने हुए कपड़ों में अग्र (श्रेष्ठ) बताया गया है।[18]
माज्झिमनिकाय
की अट्ठकथा में यहाँ के वस्त्रों की प्रभूत प्रशंसा की गई है।[19] एक स्थल पर एक धूर्त ने
जीवकाम्रवन को जाती हुई शुभा भिक्षुणी को काशी के सूक्ष्म वस्त्रों का लोभ दिलाकर
भुलाने की चेष्टा में उससे कहा था कि ‘‘काशी के उत्तम वस्त्रों को धारण करने वाली
मुझ रूपवती को छोड़कर तुम कहाँ जाओगे।’’[20]
मिलिंदपन्हों
में उल्लेखित है कि यवन शासक मिलिंद की राजधानी सागल (स्यालकोट) में भी काशी के
वस्त्र विक्रय के लिए जाते थे।[21]
इस
प्रकार यह सुविदित है कि बुद्ध काल में काशी के वस्त्र महत्त्वपूर्ण थे।
व्यापारिक
मार्ग
वाराणसी
तत्कालीन व्यापारिक मार्गों का एक प्रमुख केंद्र था। देश के विभिन्न भागों में यह
व्यापारिक मार्गों से जुड़ा हुआ था। स्थल मार्ग से व्यापार के लिए जाते हुए
वाराणसी के व्यापारियों को भयावह जंगलों के कारण होने वाले कष्टों का सामना करना
पड़ता था।[22]
जातकों
से ज्ञात होता है कि बनारस से एक रास्ता तक्षशिला को जाता था। तक्षशिला उस युग में
भारतीय और विदेशी व्यापारियों का मिलन केंद्र था।[23] एक जातक में वाराणसी से शिल्प विद्या सीखने
के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख मिलता है।[24]
कृषि और खनिज
कपास
की खेती
वाराणसी
नगर को वाणिज्य के क्षेत्र में भी ख्याति प्राप्त था। जातकों से भी विदित होता है
कि वाराणसी के बहुमूल्य,
रंगीन, सुगंधित, सुवासित, पतले एवं चिकने कपड़े
विक्रय के लिए सुदूर देशों में भेजे जाते थे। काशी में बने वस्त्रों को ‘काशी कुत्तम,[25] और ‘कासीय’[26] भी कहते थे। संभवत: इन
शब्दों का प्रयोग गुणवाचक संदर्भ में किया गया है। ऐसा समझा जाता है कि एक समय
वाराणसी के आसपास कपास की अच्छी खेती होती थी। तुंडिल जातक में[27] वाराणसी के आसपास कपास के
खेतों का वर्णन मिलता है। एक जातक में वैराग्य लेने वाले पति के मन को आकर्षित
करने के लिए उसकी पत्नी चंदन से सुवासित बनारसी रेशमी साड़ी पहनने की प्रतिज्ञा
करती है।[28]
महाहंस
जातक में काशिराज के घर में विद्यमान बहुमूल्य सामग्रियों में रत्न, सोना, चाँदी, मोती, बिल्लौर, मणि, शंख, वस्त्र, हाथीदाँत, बर्तन और ताँबा इत्यादि
प्रमुख थे। [29]
यातायात और परिवहन
किसी
नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी
में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफ़ी
ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों
में (जा. 175)
एक
जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था, जिसके पानी तक पहुँचने के
लिए कोई साधन न था।
उस
रास्ते से जो लोग जाते थे,
वे
पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे, जिससे जानवर पानी पी सकें।
वाराणसी
हवाई,
रेल
तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है।
हवाई मार्ग
वाराणसी
का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा बाबतपुर में है। यह वाराणसी से 22 किलोमीटर तथा सारनाथ से 30 किलोमीटर दूर है। दिल्ली, आगरा, खजुराहो, कोलकाता, मुंबई, लखनऊ, भुवनेश्वर तथा काठमांडू से
यहाँ के लिए सीधी हवाई सेवा है।
रेल मार्ग
वाराणसी
रेलवे स्टेशन
वाराणसी
कैंट तथा मुग़लसराय (वाराणसी के मुख्य रेलवे स्टेशन से 16 किलोमीटर दूर) यहाँ का
मुख्य रेल जंक्शन है। ये दोनों जंक्शन वाराणसी को देश के अन्य प्रमुख नगरों से
जोड़ते हैं।
सड़क
मार्ग
वाराणसी
सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली से वाराणसी के लिए
सीधी बस सेवा है। यहाँ के आई.एस.बी.टी. तथा आनन्द विहार बस अड्डे से वाराणसी के
लिए बसें चलती हैं। लखनऊ तथा इलाहाबाद से भी वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है।
सार्वजनिक
यातायात
वाराणसी
शहर के स्थानीय प्रचलित यातायात साधन ऑटो रिक्शा एवं साइकिल रिक्शा हैं। बाहरी
क्षेत्रों में नगर-बस सेवा में मिनी-बसें चलती हैं। छोटी नावें और छोटे स्टीमर
गंगा नदी पार करने हेतु उपलब्ध रहते हैं।
जल
मार्ग
वाराणसी
के धार्मिक और व्यापारिक प्रभाव का मुख्य कारण इसकी गंगा पर स्थिति होना है। गंगा
में बहुत प्राचीन काल से नावें चलती थीं, जिनसे काफ़ी व्यापार होता था। वाराणसी से
कौशांबी तक जलमार्ग से दूरी 30 योजन दी हुई है। वाराणसी से समुद्र यात्रा भी
होती थी।
एक
जातक [30]
में
कहा गया है कि वाराणसी के कुछ व्यापारियों ने दिसाकाक लेकर समुद्र यात्रा की। यह
दिशा काक समुद्र यात्रा के समय किनारे का पता लगाने के लिए छोड़ा जाता था। कभी-कभी
काशी के राजा भी नावों के बेड़ों में यात्रा करते थे।[31]
अलबरूनी
के समय में [32]
बारी
[33]
से
एक सड़क गंगा के पूर्वी किनारे अयोध्या पहुँचती थी। बारी से अयोध्या 25 फरसंग तथा वहां से वाराणसी
20
फरसंग
था। यहाँ से गोरखपुर,
पटना, मुंगेर होती हुई यह सड़क
गंगासागर को चली जाती थी। एक यही वैशाली वाली प्राचीन सड़क है और इसका उपयोग
सल्तनत युग में बहुत होता था।
ग्रैण्ड
ट्रंक रोड
सड़क-ए-आजम, जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड
कहते हैं,
बहुत
प्राचीन सड़क है,
जो
मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह
ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सराय बनवाईं और डाक का प्रबंध किया।
कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई
1500
कोस
थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। इस सड़क की अकबर के समय में काफ़ी उन्नति
हुई और शायद उसी काल में मिर्ज़ामुरात और सैयदराज में सरायें बनी। आगरा से पटना तक
इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने 1632 ईं. में किया है। एक सड़क दिल्ली- मुरादाबाद, बनारस होकर पटना जाती थी
और दूसरी आगरा - इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत
से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, ग़ाज़ीपुर और मिर्ज़ापुर से मिलाते थे।
चौराहों
पर सभाएँ
यात्रियों
के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएँ बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए
आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक।
भीतर ज़मीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की क़तारें लगी होती थी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
↑ विनयपिटक, जिल्द 1, पृष्ठ 262
↑ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
↑ सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृष्ठ 523
↑ कैंब्रिज
हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया,
भाग
1,
पृष्ठ
213
↑ महावस्तु, 3, 286
↑ जातक, खंड 3, पृष्ठ 384
↑ जातक, खंड 4, पृष्ठ 2, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
↑ महावग्ग, 10/2/3
↑ दीघनिकाय, भाग 3, 60। 1-10 (नालंदा
↑ जातक, भाग 2, संख्या 156, पृष्ठ 183 (भदंत आनंद कौसल्यायन
संस्करण
↑ ‘‘एक
भूमिद्विभूमिकादि भेदे गेहे सज्जेत्वा’’ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 48
↑ 129- जातक, भाग 3 संख्या 221, पृष्ठ 395
↑ ‘‘कासिकवत्थं
निवासेन्ति,
काशिकाविलेपन’’ जातक, भाग 1, संख्या 20, पृष्ठ 505
↑ अन्न
पानं काशिकं चंदनन्च। मनापिट्ठियो मालमुच्छादनन्च॥ जातक, भाग 5, संख्या 518, पृष्ठ 166
↑ 108- अंगुत्तरनिकाय, जिल्द तीसरी, पृष्ठ 391
↑ मिलिंदपन्हों, पृष्ठ 243-48
↑ जातक, भाग 2, पृष्ठ 287 जातक, भाग 1, (तंडनालि जातक, पृष्ठ 208
↑ संयुक्तनिकाय
(हिन्दी अनुवाद),
दूसरा
भाग,
पृष्ठ
641
↑ ‘‘वाराणसियं
किर कप्पासो पि मृदु,
सुत्तकत्तिकायो
पि तत्तवायो पि छेका। उदकंपि सुचिसिनिद्धं, तस्मां वत्थं उभतो भावविमट्ठं होति। द्वीस
पस्सेसु मट्ठं मृदुसिनिद्धं खायति।’’मज्झिमनिकाय, 2/3/7: देखें, भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 368
↑ ‘‘...कासिकुत्तमधारिनि....
कस्सोहाय गच्छसि’’
-थेरीगाथा, पृष्ठ 298
↑ 107- मिलिंदपन्हो, पृष्ठ 222
↑ जातक, भाग 3 सं. 243, पृष्ठ 356 जातक, भाग 5 संख्या 256, पृष्ठ 61
↑ मोतीचंद्र
सार्थवाह,
पृष्ठ
12
↑ जातक, भाग 3, पृष्ठ 348
↑ जातक, खंड 6 सं. 539 (महाजनक जातक
↑ तत्रैव, खंड 6, संख्या 547 (महावेसत्त जातक
↑ तत्रैव
भाग 3
पृष्ठ
286
मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 47
↑ जातक
संख्या 457
देखें, उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा
नगर जीवन,
पृष्ठ
126
↑ यं
किंविरतनं अत्थि कासिराज निवेसने।
रजतं
जातरूपन्चं मुक्ता बेलुरिया बहु।
मणयो
संखमुत्तन्य वत्थकं हरिचंदनं।
अजिनं
दत्त भंडन्य लोहं,
कालायनं
बहु॥ जातक,
भाग
5
(सं.
534)
पृष्ठ
462
↑ जातक
384
↑ जातक
3/326
↑ 11वीं
सदी का आरंभ
↑ आगरा
की एक तहसील
साभार:
भारत डिस्कवरी
'वाराणसी' उद्योग और व्यापार का
प्रमुख केंद्र है। भारत में स्थित वाराणसी का पुराना शहर प्रारम्भिक काल से ही
अपने किमखाब और सिल्क के कपड़ों के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज भी यह उज्ज्वल परम्परा
यहाँ पर जीवित है और वाराणसी के कारीगर तरह-तरह के नक्शों और नमूनों में
आश्चर्यचकित कर देने वाले विभिन्न प्रकार के मनमोहक कपड़े तैयार करते हैं। वाराणसी
ज़िला आज भी भारत के प्रमुख सिल्क बुनने वाले केन्द्रों में से एक है और इसके पास
लगभग 29,000
हथकरघे
हैं,
जिनमें
से अधिकाँश शहर के 10
से 15 मील के अर्द्धव्यास में
फैले हुए हैं। 1958
में
1,25,20,000
रुपये
के विनियोजन पर,
इस
उद्योग से लगभग 85,000
लोगों
को रोज़गार मिला तथा अन्य 10,000
लोग
इसके सहायक व्यवसायों और व्यापार के कार्यों में लगे थे।
वाराणसी
कला,
हस्तशिल्प, संगीत और नृत्य का भी
केन्द्र है। यह शहर रेशम,
सोने
व चाँदी के तारों वाले ज़री के काम, लकड़ी के खिलौनों, काँच की चूड़ियों, हाथी दाँत और पीतल के काम
के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के प्रमुख उद्योगों में रेल इंजन निर्माण इकाई शामिल है।
वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है।
वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी किमखाब तथा ज़री के वस्त्रों से
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता
ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार
में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी
मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा ज़री के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन
पर मनोहारी काम और संजरात (झांझ मझीरा) उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए
विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों
में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं।
वाणिज्य
और व्यापार का प्रमुख केंद्र
वाराणसी
नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह
नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग राजगृह को जाता था।[1] काशी से वेरंजा जाने के
लिए दो रास्ते थे-
सोरेय्य
होकर
प्रयाग
में गंगा पार करके।
दूसरा
मार्ग बनारस से वैशाली को चला जाता था।[2] वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के
साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से चंदन लाया था।[3]
व्यापार
समुद्री
व्यापार
वाराणसी
के व्यापारी समुद्री व्यापार भी करते थे। काशी से समुद्र यात्रा के लिए नावें
छूटती थीं।[4]
इस
नगर के धनी व्यापारियों को व्यापार के उद्देश्य से समुद्र पार जाने का उल्लेख है।[5] जातकों में भी व्यापार के
उद्देश्य से बाहर जाने का उल्लेख मिलता है। एक जातक में उल्लेख है कि बनारस के
व्यापारी दिशाकाक लेकर समुद्र यात्रा को गए थे।[6] एक अन्य व्यापारी मित्रविदंक जहाज़ लेकर
समुद्र यात्रा पर गया था,
जहाँ
उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा।[7]
महावग्ग[8] में काशिराज ब्रह्मदत्त को
विपुल धन का स्वामी,
भोग-विलास
की सामग्री से परिपूर्ण कहा गया है। इससे यह विदित होता है कि अन्य नगरों या
जनपदों की तुलना में काशी की आर्थिक स्थिति अच्छी थी।
दीघनिकाय
में संख नामक राजा के राजत्व में सातरत्नों- चक्करतन, हस्तिरत्नं, मणिरत्नं, हत्थिरत्नं, गृहपतिरत्नं एवं परिणायक
रत्न- से युक्त वाराणसी नगरी को केतुमती नामक समृद्ध एवं बहुजना तथा आकिष्णनुमा
होने की भविष्यवाणी की गई है।[9] यह विवरण इसकी समृद्धि का सूचक है।
काष्ठ व्यवसाय
जातकों
के अनुसार वाराणसी काष्ठ व्यवसाय का भी एक प्रमुख केंद्र था। इन नगर के पास एक
बड्ढकि ग्राम था,
जहाँ
बढ़ईयों की बस्ती थी। इस बस्ती में 5 सौ बढ़ई रहते थे।[10] वे जंगलों में जाकर
गृहनिर्माण में प्रयुक्त होने वाली लकड़ियों को काट लेते थे। ये बढ़ई एक, दो अथवा कई मंजिलों वाले
मकान बनाने में दक्ष थे।[11]
गजदंत-व्यवसाय
वाराणसी
में गजदंत-व्यवसाय का भी विस्तृत प्रचार था। जातकों में यहाँ एक दंतकार वीथि (गली)
का उल्लेख आया है,
यहाँ
हाथीदाँत की वस्तुयें बनती थी।[12] वाराणसी के व्यापारी विक्रय की अनेक वस्तुओं
के अतिरिक्त हाथी के दाँत के बने हुए सामान भी देश के अन्य भागों में पहुँचाते थे।
वर्तमान समय में हाथीदाँत भारत की सरकार द्वारा प्रतिबंधित है, अत: हाथीदाँत के आभूषणों
और इसके अन्य उत्पाद उपलब्ध नहीं हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ मिट्टी के बर्तन एवं
खिलौने आदि भी बनाए जाते थे, जिनका समर्थन पुरातात्विक उत्खनन से भी
प्राप्त प्रमाणों से निश्चित होता है।
कासिक चंदन (काशी का चंदन)
इसके
अतिरिक्त ‘कासिक चंदन’ भी वाराणसी का एक प्रमुख
उद्योग था,
जातकों
में ‘कासिक चंदन’ का उल्लेख कई स्थलों पर
आया है।[13]
पंडर
जातक[14]
में
‘कासिक चन्दनन्च’ शब्द मिलता है। इन
उल्लेखों से यह विदित होता है कि बौद्ध काल में वाराणसी चंदन के उद्योग एवं व्यापार
के लिए सुविख्यात था।
बहुमूल्य
वस्त्रों के अतिरिक्त काशी जनपद चंदन के लिए भी प्रसिद्ध था। जातकों और
अंगुत्तरनिकाय[15]
में
‘कासि विलेपन’ और ‘कासि चंदन’ का उल्लेख मिलता है। काशी
में चंदन की लकड़ी का उद्योग मिलिंदपन्हों में भी मिलता है।[16]
इस
प्रकार यह निश्चित है कि बौद्ध साहित्य में वाराणसी को व्यापार और वाणिज्य के
क्षेत्र में समृद्धिप्राप्त थी, जिसका विवरण बौद्ध ग्रंथों में अनेकश: मिलता
है।
वाराणसी
में उत्तरापथ के घोड़ों का व्यापार होता था। यहाँ के बाज़ार में सुंदर एवम् अच्छे
सैंधव घोड़े उपलब्ध थे,
जिनकी
माँग अधिक रहती थी। अनेकश: घोड़े के व्यापारियों को उत्तरापथ (गांधार-तक्षशिला) से
घोड़े लेकर वाराणसी में बेचने आने का उल्लेख है। उत्तरापथ में पाँच सौ अश्वों को
लेकर व्यापारार्थ व्यापारियों का वाराणसी में आने का प्रमाण मिलता है।'[17]
वाराणसी
से व्यापार के लिए देश के अन्य भागों में वस्त्र, चंदन, हाथीदाँत के सामान, मिट्टी के बर्तन एवं
खिलौने तथा काष्ठ के बने हुए सामान भेजे जाते थे, जिनका उल्लेख जातकों में विस्तार से आया है।
बहुमूल्य वस्त्रों के लिए विख्यात
बुद्ध
काल में वाराणसी नगरी सुंदर, बहुमूल्य वस्त्रों के लिए भी विख्यात थी, जिसका उल्लेख बौद्ध
ग्रंथों में अनेक स्थलों पर मिलता है। संयुक्त निकाय के वत्थिसुत्त में काशी का
बना कपड़ा अन्य समस्त जगहों से बने हुए कपड़ों में अग्र (श्रेष्ठ) बताया गया है।[18]
माज्झिमनिकाय
की अट्ठकथा में यहाँ के वस्त्रों की प्रभूत प्रशंसा की गई है।[19] एक स्थल पर एक धूर्त ने
जीवकाम्रवन को जाती हुई शुभा भिक्षुणी को काशी के सूक्ष्म वस्त्रों का लोभ दिलाकर
भुलाने की चेष्टा में उससे कहा था कि ‘‘काशी के उत्तम वस्त्रों को धारण करने वाली
मुझ रूपवती को छोड़कर तुम कहाँ जाओगे।’’[20]
मिलिंदपन्हों
में उल्लेखित है कि यवन शासक मिलिंद की राजधानी सागल (स्यालकोट) में भी काशी के
वस्त्र विक्रय के लिए जाते थे।[21]
इस
प्रकार यह सुविदित है कि बुद्ध काल में काशी के वस्त्र महत्त्वपूर्ण थे।
व्यापारिक मार्ग
वाराणसी
तत्कालीन व्यापारिक मार्गों का एक प्रमुख केंद्र था। देश के विभिन्न भागों में यह
व्यापारिक मार्गों से जुड़ा हुआ था। स्थल मार्ग से व्यापार के लिए जाते हुए
वाराणसी के व्यापारियों को भयावह जंगलों के कारण होने वाले कष्टों का सामना करना
पड़ता था।[22]
जातकों
से ज्ञात होता है कि बनारस से एक रास्ता तक्षशिला को जाता था। तक्षशिला उस युग में
भारतीय और विदेशी व्यापारियों का मिलन केंद्र था।[23] एक जातक में वाराणसी से शिल्प विद्या सीखने
के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख मिलता है।[24]
कृषि और खनिज
कपास
की खेती
वाराणसी
नगर को वाणिज्य के क्षेत्र में भी ख्याति प्राप्त था। जातकों से भी विदित होता है
कि वाराणसी के बहुमूल्य,
रंगीन, सुगंधित, सुवासित, पतले एवं चिकने कपड़े
विक्रय के लिए सुदूर देशों में भेजे जाते थे। काशी में बने वस्त्रों को ‘काशी कुत्तम,[25] और ‘कासीय’[26] भी कहते थे। संभवत: इन
शब्दों का प्रयोग गुणवाचक संदर्भ में किया गया है। ऐसा समझा जाता है कि एक समय
वाराणसी के आसपास कपास की अच्छी खेती होती थी। तुंडिल जातक में[27] वाराणसी के आसपास कपास के
खेतों का वर्णन मिलता है। एक जातक में वैराग्य लेने वाले पति के मन को आकर्षित
करने के लिए उसकी पत्नी चंदन से सुवासित बनारसी रेशमी साड़ी पहनने की प्रतिज्ञा
करती है।[28]
महाहंस
जातक में काशिराज के घर में विद्यमान बहुमूल्य सामग्रियों में रत्न, सोना, चाँदी, मोती, बिल्लौर, मणि, शंख, वस्त्र, हाथीदाँत, बर्तन और ताँबा इत्यादि
प्रमुख थे। [29]
यातायात और परिवहन
किसी
नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से वाराणसी
में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफ़ी
ध्यान था। बनारसवासी सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों
में (जा. 175)
एक
जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था, जिसके पानी तक पहुँचने के
लिए कोई साधन न था।
उस
रास्ते से जो लोग जाते थे,
वे
पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे, जिससे जानवर पानी पी सकें।
वाराणसी
हवाई,
रेल
तथा सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है।
हवाई मार्ग
वाराणसी
का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा बाबतपुर में है। यह वाराणसी से 22 किलोमीटर तथा सारनाथ से 30 किलोमीटर दूर है। दिल्ली, आगरा, खजुराहो, कोलकाता, मुंबई, लखनऊ, भुवनेश्वर तथा काठमांडू से
यहाँ के लिए सीधी हवाई सेवा है।
रेल मार्ग
वाराणसी रेलवे स्टेशन
वाराणसी
कैंट तथा मुग़लसराय (वाराणसी के मुख्य रेलवे स्टेशन से 16 किलोमीटर दूर) यहाँ का
मुख्य रेल जंक्शन है। ये दोनों जंक्शन वाराणसी को देश के अन्य प्रमुख नगरों से
जोड़ते हैं।
सड़क मार्ग
वाराणसी
सड़क मार्ग द्वारा देश के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ है। दिल्ली से वाराणसी के लिए
सीधी बस सेवा है। यहाँ के आई.एस.बी.टी. तथा आनन्द विहार बस अड्डे से वाराणसी के
लिए बसें चलती हैं। लखनऊ तथा इलाहाबाद से भी वाराणसी के लिए सीधी बस सेवा है।
सार्वजनिक
यातायात
वाराणसी
शहर के स्थानीय प्रचलित यातायात साधन ऑटो रिक्शा एवं साइकिल रिक्शा हैं। बाहरी
क्षेत्रों में नगर-बस सेवा में मिनी-बसें चलती हैं। छोटी नावें और छोटे स्टीमर
गंगा नदी पार करने हेतु उपलब्ध रहते हैं।
जल
मार्ग
वाराणसी
के धार्मिक और व्यापारिक प्रभाव का मुख्य कारण इसकी गंगा पर स्थिति होना है। गंगा
में बहुत प्राचीन काल से नावें चलती थीं, जिनसे काफ़ी व्यापार होता था। वाराणसी से
कौशांबी तक जलमार्ग से दूरी 30 योजन दी हुई है। वाराणसी से समुद्र यात्रा भी
होती थी।
एक
जातक [30]
में
कहा गया है कि वाराणसी के कुछ व्यापारियों ने दिसाकाक लेकर समुद्र यात्रा की। यह
दिशा काक समुद्र यात्रा के समय किनारे का पता लगाने के लिए छोड़ा जाता था। कभी-कभी
काशी के राजा भी नावों के बेड़ों में यात्रा करते थे।[31]
अलबरूनी
के समय में [32]
बारी
[33]
से
एक सड़क गंगा के पूर्वी किनारे अयोध्या पहुँचती थी। बारी से अयोध्या 25 फरसंग तथा वहां से वाराणसी
20
फरसंग
था। यहाँ से गोरखपुर,
पटना, मुंगेर होती हुई यह सड़क
गंगासागर को चली जाती थी। एक यही वैशाली वाली प्राचीन सड़क है और इसका उपयोग
सल्तनत युग में बहुत होता था।
सड़क-ए-आजम, जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड
कहते हैं,
बहुत
प्राचीन सड़क है,
जो
मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह
ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सराय बनवाईं और डाक का प्रबंध किया।
कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई
1500
कोस
थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। इस सड़क की अकबर के समय में काफ़ी उन्नति
हुई और शायद उसी काल में मिर्ज़ामुरात और सैयदराज में सरायें बनी। आगरा से पटना तक
इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने 1632 ईं. में किया है। एक सड़क दिल्ली- मुरादाबाद, बनारस होकर पटना जाती थी
और दूसरी आगरा - इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत
से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, ग़ाज़ीपुर और मिर्ज़ापुर से मिलाते थे।
चौराहों
पर सभाएँ
यात्रियों
के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएँ बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए
आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक।
भीतर ज़मीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की क़तारें लगी होती थी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
↑ विनयपिटक, जिल्द 1, पृष्ठ 262
↑ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
↑ सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृष्ठ 523
↑ कैंब्रिज
हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया,
भाग
1,
पृष्ठ
213
↑ महावस्तु, 3, 286
↑ जातक, खंड 3, पृष्ठ 384
↑ जातक, खंड 4, पृष्ठ 2, काशी का इतिहास, पृष्ठ 49
↑ महावग्ग, 10/2/3
↑ दीघनिकाय, भाग 3, 60। 1-10 (नालंदा
↑ जातक, भाग 2, संख्या 156, पृष्ठ 183 (भदंत आनंद कौसल्यायन
संस्करण
↑ ‘‘एक
भूमिद्विभूमिकादि भेदे गेहे सज्जेत्वा’’ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 48
↑ 129- जातक, भाग 3 संख्या 221, पृष्ठ 395
↑ ‘‘कासिकवत्थं
निवासेन्ति,
काशिकाविलेपन’’ जातक, भाग 1, संख्या 20, पृष्ठ 505
↑ अन्न
पानं काशिकं चंदनन्च। मनापिट्ठियो मालमुच्छादनन्च॥ जातक, भाग 5, संख्या 518, पृष्ठ 166
↑ 108- अंगुत्तरनिकाय, जिल्द तीसरी, पृष्ठ 391
↑ मिलिंदपन्हों, पृष्ठ 243-48
↑ जातक, भाग 2, पृष्ठ 287 जातक, भाग 1, (तंडनालि जातक, पृष्ठ 208
↑ संयुक्तनिकाय
(हिन्दी अनुवाद),
दूसरा
भाग,
पृष्ठ
641
↑ ‘‘वाराणसियं
किर कप्पासो पि मृदु,
सुत्तकत्तिकायो
पि तत्तवायो पि छेका। उदकंपि सुचिसिनिद्धं, तस्मां वत्थं उभतो भावविमट्ठं होति। द्वीस
पस्सेसु मट्ठं मृदुसिनिद्धं खायति।’’मज्झिमनिकाय, 2/3/7: देखें, भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 368
↑ ‘‘...कासिकुत्तमधारिनि....
कस्सोहाय गच्छसि’’
-थेरीगाथा, पृष्ठ 298
↑ 107- मिलिंदपन्हो, पृष्ठ 222
↑ जातक, भाग 3 सं. 243, पृष्ठ 356 जातक, भाग 5 संख्या 256, पृष्ठ 61
↑ मोतीचंद्र
सार्थवाह,
पृष्ठ
12
↑ जातक, भाग 3, पृष्ठ 348
↑ जातक, खंड 6 सं. 539 (महाजनक जातक
↑ तत्रैव, खंड 6, संख्या 547 (महावेसत्त जातक
↑ तत्रैव
भाग 3
पृष्ठ
286
मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 47
↑ जातक
संख्या 457
देखें, उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा
नगर जीवन,
पृष्ठ
126
↑ यं
किंविरतनं अत्थि कासिराज निवेसने।
रजतं
जातरूपन्चं मुक्ता बेलुरिया बहु।
मणयो
संखमुत्तन्य वत्थकं हरिचंदनं।
अजिनं
दत्त भंडन्य लोहं,
कालायनं
बहु॥ जातक,
भाग
5
(सं.
534)
पृष्ठ
462
↑ जातक
384
↑ जातक
3/326
↑ 11वीं
सदी का आरंभ
↑ आगरा
की एक तहसील
साभार:
भारत डिस्कवरी
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