काशी / वाराणसी की संगीत परम्परा (काशी संगीत समाज )_5

मेवाड़ के महाराणा कुंभ (1431-1469 ई.) जैसे वीर थे वैसे ही संगीत के भी बहुत प्रख्यात विद्वान् थे। यह भरत पद्धति से पूर्णतया परिचित थे। इन्होंने "गीतगोविंद" पर रसिकप्रिया नाम की एक टीका लिखी और संगीत पर "संगीतराज" नामक ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ 16 सहस्र श्लोको में पूर्ण हुआ है और गीत, वाद्य, नृत्य सभी पर इसमें पूर्ण प्रकाश डाला गया है।
लोचन कवि ने रागतरंगिणी का प्रणयन संभवत: 15वीं शती में किया। इसमें रागों का वर्गीकरण बारह ठाठों में किया गया है। 15वीं शती में चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव से बंगाल में भक्तिसंगीत का अधिक प्रचार हुआ और संकीर्तन बहुत ही लोकप्रिय हो गया।
ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर (15वीं शती) ने ध्रुवपद शैली के गायन का विकास किया। संभवत: नायक बैजू इनके दरबार में थे। इन्होंने हिंदी में "मानकुतूहल" नामक ग्रंथ की रचना की। संगीत पर हिंदी में कदाचित् यह पहला ग्रंथ है। इसमें उस समय के रागों पर पर्याप्त प्रकाश डाल गया है।
मुगल बादशाहों में अकबर (1556-1605 ई.) ने संगीत को सबसे अधिक प्रोत्साहन दिया। इस काल में वृंदावन में स्वामी हरिदास संगीत के बहुत ही प्रख्यात आचार्य थे। कहा जाता है, तानसेन ने संगीत में शिक्षा पाई थी। इन्होंने सैकड़ों ध्रुवपद और धमार की रचना की। सूरदास, नंददास, कुंभनदास, गोविंदस्वामी इत्यादि वैष्णव कवियों ने "विष्णुपद" की रचना की जो मंदिरों में गाए जाते थे। ये छंद में आबद्ध थे, किंतु ध्रुवपद की शैली में गाए जाते थे।
तानसेन पहले रीवाँ के महाराज रामचंद्र बघेल के दरबार में थे। अकबर ने उन्हें वहाँ से बुलवाकर अपना दरबारी गायक नियुक्त किया। तानसेन की प्रचलित गानपद्धति का ज्ञान तो था ही, वह प्राचीन संगीत पद्धति से भी परिचित थे। इन्होंने दरबारी कानडा, मियाँ की तोड़ी, मियाँपल्लार इत्यादि रागों का निर्माण किया। वह अनुपम गायक थे। उनके वंशजों ने ध्रुवपद धमार की गायकी और वीणा और रवाव वादन को 20वीं शती तक जीवित रखा।
१८ वीं शताब्दी में घराने एक प्रकार से औपचारिक संगीत शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु ब्रिटिश शासनकाल का आविर्भाव होने पर घरानों की रूपरेखा कुछ शिथिल होने लगी क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति के व्यवस्थापक कला की अपेक्षा वैज्ञानिक प्रगति को अधिक मान्यता देते थे और आध्यात्म की अपेक्षा इस संस्कृति में भौतिकवाद प्रबल था।
भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत कला को जो पवित्रता एवं आस्था का स्थान प्राप्त था तथा जिसे कुछ मुसलमान शासकों ने भी प्रश्रय दिया और संगीत को मनोरंजन का उपकरण मानते हुए भी इसके साधना पक्ष को विस्मृत न करते हुए संगीतज्ञों तथा शास्त्रकारों को राज्य अथवा रियासतों की ओर से सहायता दे कर संगीत के विकासात्मक पक्ष को विस्मृत नहीं किया। परन्तु ब्रिटिश राज्य के व्यस्थापकों ने संगीत कला के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाकर उसे यद्यपि व्यक्तित्व के विकास का अंग माना परन्तु यह दृष्टिकोण आध्यात्मिकता के धरातल पर स्थित न था। उन्होंने अन्य विषयों के समान ही एक विषय के रूप में ही इसे स्वीकार किया, परन्तु वैज्ञानिक प्रगति की प्रभावशीलता के कारण यह विषय अन्य पाठ्य विषयों के बीच लगभग उपेक्षित ही रहा।
काशी की अपनी एक विशेषता है। इस विशेषता में संगीत एक महत्त्वपूर्ण कड़ी रही है। भगवान शिव के ताण्डव नृत्य के अभिव्यक्ति में और उसमें धारण किये हुए डमरू के ध्वनि से संगीत व नृत्य कला का स्रोत माना जा सकता है। संगीत स्थान, समय, भाव व्यक्ति के अंदर तरंगो की उच्च अवस्था से संगीत में अंतर्निहित विभिन्न स्वरूपों की रचना होती है और वो विभिन्न रूपों में भावाभिव्यक्त होती है। काशी में संगीत की परम्परा काफी पुरानी है लेकिन आज का संगीत ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी आदि का स्वरूप प्राचीन संगीत का परिष्कृत विकसित स्वरूप है। काशी में प्राचीनकाल से ही संगीत की प्रतिष्ठा गुथिलजैसे संगीतज्ञों ने की थी। जातक कथा के अनुसार ये वीणा बजाने में सिद्धहस्थ थे। 14वी सदी में हस्तिमल द्वारा रचित नाटक विक्रांत कौरवम्में काशी के संगीत का वर्णन मिलता है। 16वीं सदी में काशी के शासक गोविन्द चन्द्र के समय गणपति अपने कृति माधवानल कामकंदलामें नाचगाना, कठपुतली का तमाशा और भाँड का विवरण देते हैं। चैतन्य महाप्रभु का भजन-कीर्तन और महाप्रभु वल्भाचार्य का हवेली संगीत आज भी काशी में जीवंत है। इसी काशी में तानसेन के वंशज काशीराज दरबार की शोभा थे।
काशी में संगीत साधकों की साधना बहुत पहले से ही चली आ रही है। इसी के फलस्वरूप काशी संगीत की जन्मभूमि और कई साधकों की कर्मस्थली रही है। काशी में धार्मिक वातावरण तथा सांस्कृतिक परिवेश ने संगीत के कलाकारों को अपनी प्रतिभा मांजने एवं प्रदर्शित करने का श्रेष्ठ अवसर प्रदान किया है।
काशी की ये बात जी की हम सिर्फ एक कल्पना में सोच सकते है वो बताते है श्री रस्तोगी जी बनारस के तवायफों के बारे में ..
बनारस की इन तवायफों ने लूटी थीं महफिलें, दुनिया भर में थे इनके दीवाने

प्राचीनतम नगरी में शुमार काशी केवल मंदिरों, गंगा घाटों और खानपान के लिए ही नहीं,
बल्कि तवायफों की मशहूर महफ़िलों के लिए भी पूरी दुनिया में जाना जाता था। विश्व की प्राचीन नगरी काशी (बनारस) से कुछ मशहूर तवायफों का पुराना नाता है। 18वीं शताब्दी के अन्त एवं 19वीं शताब्दी के शुरुआत में कई तवायफों ने अपनी महफिलें काशी के चौराहों से लेकर संकरी गलियों में सजाई थी। उस वक्त शाम होते ही काशी के रईस अपने महफिलों की शान तवायफों के संगीत से बढ़ाया करते थे।
सन् 1900 के आस-पास राजे महाराजे से लेकर हर खासो-आम इन तवायफों पर बेतहाशा धन न्यौछावर करते थे। राज दरबारों, रईसों की कोठियों के अलावा मंदिरों और मठों में भी इनकी संगीत की महफिल जमा करती थी। काशी समाज के संयोजक और ग्वालियर घराने के गायक केके रस्तोगी ने ऐसी ही कुछ तवायफों के बारे में बताया जिन्होंने लोगों के दिलों पर राज किया था।
राजाओं के समय से तहजीब की पाठशाला लगाने वाली तवायफें धीरे-धीरे समय परिवर्तन के साथ उच्च वर्ग (रईस ) के घरों में पड़ने वाले मुंडन, शादी, कर्णछेदन, उपनयन संस्कारों में भी संगीत प्रस्तुत करने लगीं।
काशी के रईसों ने इन महिलाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया, गंधर्व, रामजानी, और
गौनहारिन। 5वीं सदी के श्यामलिक ने 'बन पद तडितकम' में भी महफ़िलों का उल्लेख किया है। शोध कर रहे केके रस्तोगी ने बताया, बहुत से लेखकों ने मशहूर महफ़िलों पर किताबें भी लिखीं हैं। बनारसी महफ़िलों पर लिखी गईं किताबें विदेशों में भी खूब प्रचलित हैं।
काशी समाज के संयोजक और ग्वालियर घराने के गायक केके रस्तोगी बताते हैं कि कश्मीर के राजा जयपीड (779-813) के मंत्री दामोदर गुप्त द्वारा लिखित ''कूट्नीमतम'' पुस्कत में वेश्याओं के व्यापारिक जीवन के बारे में काफी कुछ लिखा है। किताब में दर्शाया गया है कि वेश्याएं ग्राहकों को कैसे आकर्षित करती थीं, साथ ही यह बी बताया गया है कि कैसे कश्मीरी वेश्याएं काशी की महफ़िलों की शान बढ़ाया करती थीं।
 8वीं सदी की इस किताब में महफ़िलों का विस्तृत वर्णन मिलता है। गणिकाओं (गायिकाओं ) को तीन वर्गों में बाटा गया था। पहली थीं गंधर्व यानि वे महिलाएं जो किसी एक पुरुष के साथ उसकी दासी बनकर रह जाती थीं और घरों की महफ़िलें सजाती थीं। दूसरी रामजानी यानि वे महिलाएं थीं, जो नृत्य और संगीत को व्यवसाय बनाकर किसी भी महफ़िल में शामिल होती थीं। तीसरी थीं गौनहारिनवे बुजुर्ग महिलाएं होती थीं, जो दुल्हन के गौना पर जाकर महफ़िल को गायन से सजाया करती थीं।
मशहूर शायर मिर्जा ग़ालिब ने 1827 में काशी यात्रा के दौरान एक किताब 'चिराग-ए-दायर' लिखी थी। किताब में यहां की तवायफों के बारे में खूब लिखा। मिर्जा ग़ालिब ने अपने शेर में बनारस की महफ़िलों के आकर्षण के बारे में लिखा है कि संगीत की खूबसूरती महिलाओं से सुंदर थी, जो सीधे मन को छू जाती थी।
उन्होंने महफ़िलों का खुद ही अवलोकन किया था। महफिलें रईसों के मकान के आंगन में हुआ करती थीं, जिसका पूरा परिवार आनंद लेता था।

 हवेलियों में लगता था मुजरे का दरबार
केके रस्तोगी के यहां खुद तीन सौ साल पुरानी हवेली महफ़िलों का प्रमाण है। उस समय की मशहूर वेश्याएं, तवायफें इस दरबार की शान हुआ करती थीं। निमंत्रण देकर काशी के रईसों को दरबार में बुलाया जाता था।
घर की महिलाएं भी महफ़िल का आनंद लकड़ियों के बने झरोखों से लेती थीं। इन झरोखों की खास बात यह थी कि महिलाओं को दरबार में बैठा कोई आदमी देख नहीं सकता था, मगर वे
ऊपर से दरबार-ए-महफ़िल का पूरा लुत्फ उठा सकती थीं।
हवेली के अंदर खुशबू के लिए महफ़िल के बीच में ऐसा फव्वारा लगवाया गया था, जिससे गुलाबजल, इत्र की वर्षा हुआ करती थी। दीवारों पर लगे झूमरों को बादाम झूमर और सीलिंग के बीच लगे झूमर को मिर्ची कलम कहते थे। इस झूमर में आठ बत्तियां होती थीं, जो मोमबत्तियों से जलती थीं।
सिद्धेश्वरी देवी
सिद्धेश्वरी देवी चंदा बाई की लड़की थी। सिद्धेश्वरी देवी ने सन् 1900 के आस-पास सियाजी महाराज से संगीत की तालीम ली । मणिकर्णिका घाट के पास इनका अपना घर हुआ करता था। सिद्धेश्वरी देवी का कोठा भी इन्हीं के घर पर हुआ करता था। जहां संगीत के कद्रदानों की महफ़िल शाम होते ही सजने लगती थी।

रसूलन बाई
शंभू खां रसूलन बाई के उस्ताद थे, जिनसे उन्होंने संगीत की तालीम ली थी। इनका कोठा दालमंडी में था। बनारस के चौक इलाके में रसूलन बाई की जब महफ़िल लगा करती थीं तो रईस कद्रदानों की भारी भीड़ उमड़ा करती थी। 1920-22 के आस-पास रसूलन बाई की संगीत की महफ़िल में आज़ादी की लड़ाई की रणनीति भी तैयार की जाती थी।
जद्दन बाई
''लागत करेजवा में चोट'' वृन्दावनी श्रृंगार की ये ऐसी बंदिशे हैं, जो जद्दन बाई की याद को
ताजा करती हैं। जद्दन बाई अपने समकालीन गायिकाओं में सबसे बला की सुंदर थीं। अपने ज़माने की मशहूर फिल्म अभिनेत्री नर्गिस इन्हीं की बेटी थी। बनारस में चौक थाने के पास इनकी महफ़िल सजती थी। जद्दन बाई ने संगीत की शिक्षा दरगाही मिश्र और उनके सारंगी वादक बेटे गोवर्धन मिश्र से ग्रहण की थी। उस ज़माने में जद्दन बाई के कई गीत ग्रामोफोन में भी रिकार्ड किए गए। 
Created with flickr slideshow.
 संपर्क :  Krishna Kumar Rastogi.
K 36/1. Chaukhamba
Varanasi
Tel: 09936441010
0542-2400633
  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

0 comments:

Post a Comment

बनारस शिव से कभी मुक्त नही, जब से आये कैलाश न गये। बनारसी की मस्ती को लिखा नही जा सकता अनुभव होता है। अद्भूद है ये शहर जिन्दगी जीनेका तरीका कुछ ठहरा हुआ है पर सुख ठहराव में है द्रुतविलंबित में नही. मध्यम में है इसको जीनेवाला है यह नगर। नटराज यहां विश्वेश्वर के रुप में विराजते है इसलिये श्मशान पर भी मस्ती का आलम है। जनजन् शंकरवत् है। इस का अनुभव ही आनन्द है ये जान कर जीना बनारस का जीना है जीवन रस को बना के जीना है।
Copyright © 2014 बनारसी मस्ती के बनारस वाले Designed by बनारसी मस्ती के बनारस वाले
Converted to blogger by बनारसी राजू ;)
काल हर !! कष्ट हर !! दुख हर !! दरिद्र हर !! हर हर महादेव !! ॐ नमः शिवाय.. वाह बनारस वाह !!